जैन धर्म
जैन धर्म की शिक्षा
1. निवृत्ति मार्ग - बौद्ध धर्म की भांति जैनधर्म भी निवृत्तिमार्गी है । जैन धर्म के अनुसार संसार के समस्त सुख दुःखमूलक हैं । मनुष्य के दुखों का मूल कारण उसकी तृष्णा है । वह आजीवन तृष्णा से घिरा रहता है । जैन धर्म के अनुसार मनुष्य का वास्तविक सुख संसार- त्याग में निहित है ।
2. जीव और अजीव - जैन धर्म के अनुसार जीव और अजीव शाश्वत अनादि और अनन्त हैं । इनसे मिलकर ही यह जगत् बनता है । जीव स्वभावतः नित्य , चेतन , पूर्ण व अनन्त ज्ञानमय है । जीव चैतन्य द्रव्य है और अजीव चैतन्य रहित है ।
3. बन्धन और मुक्ति - बन्धन का अर्थ है - जीवन का अजीव द्वारा आवरण । जीव और अजीव के सम्बन्ध का माध्यम ' कर्म ' है । बन्धन के मुख्य कारण हैं - राग और द्वेष । राग और देव जीव में आसक्ति पैदा करते हैं । अजीव के जीव की ओर चलने की प्रक्रिया को जैन धर्म में ' आरव ' कहा गया है ।
4. ' संवर ' और ' निर्जरा'- जैन धर्म के अनुसार किये गये कर्मों का फल भोगे बिना मनुष्य को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता । अत : मोक्ष प्राप्ति के लिये आवश्यक है के मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्मफल का नाश करें और इस जन्म में किसी प्रकार का कर्मफल संग्रहीत न करे । नये कर्मों के आगमन की प्रक्रिया को रोकतना ही ' संवर ' कहलाता है ।
5. कर्मवाद - जैन धर्म के के सारे सुख - दुःख कर्म के कारण ही हैं । कर्म अनुसार मनुष्य ही मनुष्यों के जन्म - मरण का कारण है । प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है और अपने कर्मों के कारण ही उसे इस संसार में बार - बार जन्म लेना पड़ता है ।
6. पुनर्जन्म - जैन धर्म के अनुसार पाप - कर्मों के फलस्वरूप मनुष्य को बार - बार जन्म लेना पड़ता है । कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त साथ - साथ चलता है । जैन धर्म के अनुसार कमों के प्रभाव से बचने का कोई उपाय नहीं है । हर कर्म का फल भोगना पड़ता है ।
7. निर्वाण - निर्वाण जैन धर्म का चरम लक्ष्य है । इसके लिये कर्मफल से मुक्ति आवश्यक है । जैन धर्म अनुसार निर्वाण प्राप्ति के लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्मफल का नाश करे और इस जन्म में किसी प्रकार का कर्मफल संग्रहीत न करे ।
8. त्रिरत्न - जैन धर्म अनुसार कर्म - बन्धन से मुक्त होने और निर्वाण प्राप्त करने के लिये त्रिरत्नों का पालन करना चाहिए । त्रिरत्न निम्नलिखित है-
( 1 ) सम्यक् दर्शन - सम्यक् दर्शन का अर्थ है - यथार्थ ज्ञान के प्रति श्रद्धा । जैन धर्म के अनुसार ' सत् ' में विश्वास रखना ही सम्यक् श्रद्धा है ।
( 2 ) सम्यक् ज्ञान - सत् और असत् का भेद समझ लेना ही सम्यक् ज्ञान है । दूसरे शब्दों में जीव और अजीव के वास्तविक स्वरूप का पूर्ण ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है ।
( 3 ) सम्यक् चरित्र - जैन धर्म के अनुसार मनुष्य का समस्त - इन्द्रिय - विषयों से दूर रहना , उदासीन होना , सम दुःख सुख होना ही सम्यक् आचरण है और इसी को सम्यक चरित्र कहते हैं ।
9. पंचमहाव्रत - जैन धर्म के अनुसार सम्यक् चरित्र के अन्तर्गत जैन भिक्षुओं के लिए निम्नलिखित पंचमहाव्रतों की व्यवस्था की गई है
( 1 ) अहिंसा - जैन धर्म में अहिंसा पर अत्यधिक बल दिया गया है । जैन धर्म के अनुसार मन , वचन और कर्म से किसी के प्रति अहित की भावना न रखना ही वास्तविक अहिंसा है । सभी जीवों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार ही अहिंसा है । मनुष्य मन , वचन और कर्म से ऐसा कोई कार्य नहीं करे , जिससे किसी जीव को किसी प्रकार की चोट पहुंचे ।
( 2 ) सत्य - सदैव ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जो सत्य और मधुर हो ।
( 3 ) अस्तेय - अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना । बिना अनुमति किसी दूसरे व्यक्ति की वस्तु न ग्रहण करनी चाहिए और न ग्रहण करने की इच्छा ही करनी चाहिए ।
( 4 ) ब्रह्मचर्य - मनुष्य को विषय - वासनाओं से दूर रहना चाहिए ।
( 5 ) अपरिग्रह - अपरिग्रह के अनुसार धन - धान्य , वस्र आदि वस्तुओं का संग्रह न किया जाये , क्योंकि उससे सांसारिक वस्तुओं में आसक्ति उत्पन्न होती है ।
10. पंच अणुव्रत - जैन गृहस्थों के लिए पंच अणुव्रतों का विधान है । ये पंच अणुव्रत हैं- ( 1 ) अहिंसा ( 2 ) सत्य ( 3 ) अस्तेय ( 4 ) ब्रह्मचर्य तथा ( 5 ) अपरिग्रह । इन पाँच अणुव्रतों के मौलिक सिद्धान्त पंच महाव्रतों की भाँति हैं , परन्तु गृहस्थों के लिये उनकी कठोरता कम कर दी गई है । ब्रह्मचर्य के अन्तर्गत वह विवाह कर सकता है तथा अपरिग्रह के अनुसार वह सम्पत्ति अर्जित कर सकता है , परन्तु उसे आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति का संग्रह नहीं करना चाहिए ।
11. स्यादवाद - जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक वस्तु के अनेक पक्ष होते हैं । इसलिए उसे अनेक दृष्टिकोणों से भिन्न - भिन्न रूपों में देखा जा सकता है । अतः किसी वस्तु के स्वरूप के बारे में हमारे सभी कथन सापेक्ष रूप से सही हो सकते हैं , एकान्तिक रूप से नहीं । सत्य के अनेक पहलू हैं और परिस्थिति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को उसका आंशिक ज्ञान होता है । कोई व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि उसका मत ही सत्य है तथा दूसरों का गलत है । संक्षेप में एक ही दृष्टिकोण को सही न मान कर सभी दृष्टिकोणों में कुछ - न - कुछ सत्य मानने को ही ' स्यादवाद ' कहते हैं ।
12. तपस्या और उपवास पर बल देना - महावीर स्वामी ने आत्मा की शुद्धि के लिए तपस्या और उपवास पर बल दिया । जब तक मनुष्य कठोर तपस्या एवं उपवास द्वारा विषय - वासनाओं का अंत नहीं कर देता , तब तक उसे निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता ।
13. अनीश्वरवाद - जैन धर्म ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता । महावीर स्वामी का कहना था कि ईश्वर इस सृष्टि का रचयिता और हर्ता नहीं है तथा सृष्टि और प्रकृति अनादि हैं । उनके अनुसार संसार वास्तविक है और इसका कभी भी मूलतः विनाश नहीं होता । महावीर स्वामी का कहना था कि सृष्टि अथवा विश्व का संचालन करने के लिए ईश्वर जैसी किसी अलौकिक शक्ति की आवश्यकता नहीं है ।
14. वेदों में अविश्वास - जैन धर्म वेदों को सत्य एवं प्रामाणिक नहीं मानता । महावीर स्वामी के अनुसार वेद ईश्वर द्वारा रचित नहीं हैं । अतः उन्होंने वैदिक यज्ञों और कर्मकाण्डों का घोर विरोध किया ।
15. आत्मवाद - जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करता है । जैन धर्म के अनुसार आत्मा अजर और अमर है । महावीर स्वामी के अनुसार प्रकृति में परिवर्तन सम्भव हो सकते हैं , परन्तु आत्मा अजर - अमर है और सदैव एक - सी बनी रहती है । महावीर स्वामी के अनुसार विश्व में दो बुनियादी पदार्थ हैं- ( 1 ) जीव और ( 2 ) अजीव । जीव का अर्थ ही आत्मा है । महावीर स्वामी का विश्वास था कि जीव संसार के कण - कण में पाया जाता है ।
16. जाति - प्रथा का विरोध - जैन धर्म का जाति - प्रथा तथा ऊँच - नीच के भेदभाव में कोई विश्वास नहीं है । महावीर स्वामी ने जाति - प्रथा का विरोध किया और सामाजिक समानता पर बल दिया । उन्होंने निर्वाण का द्वार सभी जातियों के लोगों के लिये खोल दिया था । उनका कहना था कि मोक्ष प्राप्ति के लिये किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए ।
17. नारियों की स्वतन्त्रता पर बल देना - महावीर स्वामी ने नारियों की स्वतन्त्रता पर बल दिया । उन्होंने अपने धर्म तथा संघ के द्वार स्त्रियों के लिये खोल दिये थे । उनका कहना था कि पुरुषों की भाँति स्त्रियों को भी निर्वाण प्राप्त करने का अधिकार है ।
जैन धर्म की भारतीय संस्कृति को देन
1. अहिंसा पर बल देना - जैन धर्म ने अहिंसा के सिद्धान्त पर अत्यधिक बल दिया । जैन धर्म ने ही सबसे पहले अहिंसा के सिद्धान्त को दैनिक जीवन में आचरण का विषय बनाया । अहिंसा के इस सिद्धान्त ने भारतीय जनता को अत्यधिक प्रभावित किया और शीघ्र ही अन्य धर्मों ने भी इसे अपना लिया । ' अहिंसा परमो धर्म : ' का सिद्धान्त आज भी भारतीयों में लोकप्रिय है ।
2. सामाजिक समानता पर बल - जैन धर्म ने जाति - प्रथा तथा ऊँच - नीच के भेदभाव का विरोध किया और सामाजिक समानता पर बल दिया । जैन धर्म के अनुसार धर्म का पालन करने और मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार सभी जातियों के लोगों को है । इसके परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म में प्रचलित जाति प्रथा के बन्धन ढीले पड़ने लगे तथा ब्राह्मणों के प्रभुत्व में कमी आई ।
3. उच्च नैतिक जीवन पर बल - जैन धर्म के शुद्ध आचरण , नैतिक जीवन आदि पर बल दिया । जैन धर्म के पंच महाव्रतों , अहिंसा , सत्यव , अस्तेय , ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह ने भारतीय सामाजिक जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया तथा भारतीयों के चरित्र - निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
4. साहित्य के क्षेत्र में - साहित्य के क्षेत्र में जैन धर्म की महत्वपूर्ण देन रही है । जैन विद्वानों ने प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं में अनेक ग्रन्थों की रचना करके इन भाषाओं और साहित्य के विकास में उल्लेखनीय योगदान दिया । महावीर स्वामी ने अपने समस्त उपदेश प्राकृत भाषा में दिये तथा जैन धर्म से सम्बन्धित साहित्य भी प्राकृत भाषा में ही रचा गया । इसके अतिरिक्त जैन विद्वानों ने संस्कृत भाषा में ही है । जैन विद्वानों ने कन्नड़ , तमिल , तेलगु , गुजराती , मराठी आदि भाषाओं में भी अनेक ग्रन्थ लिखे । इस प्रकार जैन विद्वानों ने भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।
5. दार्शनिक क्षेत्र में - दार्शनिक क्षेत्र में भी जैन धर्म की महत्वपूर्ण देन है । जैन विचारधारा ने ज्ञान सिद्धान्त , स्यादवाद , अहिंसा आदि के विचारों को देकर भारतीय दार्शनिक चिन्तन को गौरवपूर्ण स्थान पर ला दिया है । ज्ञान सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक जीव को आत्मा पूर्ण ज्ञान - युक्त है , परन्तु सांसारिक मोह माया का पर्दा उसके ज्ञान रूपी प्रकाश को प्रकट नहीं होने देता ।
6. कला के क्षेत्र में - जैन धर्म ने भारतीय कला के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है । स्मारकों , मठों , गुफाओं और मूर्तियों के रूप में जैन धर्म की कला सम्बन्धी देन उल्लेखनीय हैं । उड़ीसा के पुरी जिले में उदयगिरी और खण्डगिरी में 35 जैन गुफाएँ मिली हैं । इन गुफाओं में बनी हुई जैन धर्म से सम्बन्धित मूर्तियाँ बड़ी कलात्मक हैं । मध्यप्रदेश में खजुराहो के जैन मन्दिर , काठियावाड़ की गिरनार तथा पालीताना पहाड़ियों पर बने जैन मन्दिर , रणकपुर ( राजस्थान ) तथा पारसनाथ ( बिहार ) के मन्दिर भी स्थापत्य कला के श्रेष्ठ नमूने हैं ।
7. हिन्दू धर्म में सुधार - जैन धर्म ने हिन्दू धर्म में प्रचलित यज्ञों , पशुबलि , आडम्बरों एवं कर्मकाण्डों का विरोध किया । जैन धर्म ने जाति - प्रथा और ऊँच - नीच के भेदभाव का भी विरोध किया । इससे हिन्दू धर्म के अनुयायियों को भी अपने धर्म में सुधार करने की प्रेरणा मिली ।
8. संघ व्यवस्था - महावीर स्वामी ने जैन धर्म के प्रचार - प्रसार के लिये भिक्षु - संघ की स्थापना की थी । इसका भारतीय धर्मों पर भी प्रभाव पड़ा और उन्होंने भी इस संघ - व्यवस्था को अपना लिया । भारतीय धर्मों में यह संघ - व्यवस्था आज तक किसी न किसी रूप में विद्यमान है ।
9. समाज सेवा को प्रोत्साहन - जैन धर्म के अनुयायियों ने अनेक धर्मशालाओं , औषधालयों , पाठशालाओं आदि का निर्माण करवाया जिससे समाज के निर्धन लोगों को बड़ा लाभ हुआ । जैनियों की इस समाज सेवा की भावना का प्रभाव अन्य लोगों पर भी पड़ा और उन्होंने भी समाज सेवा के ये कार्य आरम्भ कर दिये ।
10. नारी स्वतंत्रता - महावीर स्वामी नारी - स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे । पार्श्वनाथ ने भी नारी स्वतन्त्रता का समर्थन किया था । जैन धर्म ने स्रियों को भी पुरुषों की भाँति निर्वाण प्राप्त करने का अधिकारी बतलाया । स्रियों को भी जैन - संघ में प्रवेश होने का अधिकार दिया गया । इस प्रकार जैन धर्म ने नारियों में आत्मविश्वास तथा आत्मगौरव की भावनाएँ उत्पन्न की ।
11. सांस्कृतिक समन्वय और एकता की भावना - जैन धर्म ने सांस्कृतिक समन्वय और एकता की भावना को सफल बनाया । विचार समन्वय के लिये उसने स्यादवाद के रूप में दार्शनिक दृष्टिकोण दिया । उसने पंच अणुव्रत तथा पंच महाव्रत द्वारा गृहस्थ धर्म तथा भिक्षु धर्म में समन्वय किया । जैन धर्म ने सम्प्रदायवाद , जातिवाद , भाषावाद आदि का विरोध किया और राष्ट्रीय एकता की भावना को प्रोत्साहित किया ।
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