हिन्दू संस्कार
1. जैमिनी के अनुसार , " संस्कार वह प्रक्रिया है , जिसके करने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के योग्य हो जाता है । "
2. वीर मित्रोदय के अनुसार- " संस्कार एक विलक्षण योग्यता है , जो शास्त्रों में वर्णित क्रियाओं के सम्पादन से उत्पन्न होती है । "
हिन्दू संस्कार:-
1. गर्भाधान - हिन्दू धर्म के अनुसार पुत्र को जन्म देना एक पवित्र धार्मिक कृत्य है । यदि कोई पुरुष अपने शिशु को विधिवत् अपनी पत्नी के गर्भ में नहीं रखता है , तो पाराशर के अनुसार वह ब्रह्महत्या का भागी होता है ।
2. पुंसवन - ' पुंसवन ' शब्द का प्रयोग अथर्ववेद में मिलता है , जिसका अर्थ पुत्र संतान को जन्म देने से है । पुंसवन संस्कार का उद्देश्य पुत्र संतान की प्राप्ति रहा है । आश्वलायन गृहसूत्र में बताया गया है कि इस संस्कार को गर्भधारण के तीसरे महीने में सम्पन्न करना चाहिए । स्री इस दिन उपवास रखती है और रात्रि में उसकी नाक के दाहिने नथुने में वटवृक्ष की छाल को कूटकर निकाला गया रस मंत्रोच्चारण के साथ डाला जाता था । इस अवसर पर स्त्री के अंक में जल से भरा हुआ कलश रखा जाता है और पति गर्भ का स्पर्श करके वीर एवं श्रेष्ठ पुत्र संतान की कामना करता है ।
3. सीमान्तोन्नयन - इस संस्कार में गर्भिणी स्त्री के केशों को ऊपर उठाया ( उन्नयन ) जाता था । ऐसा विश्वास किया जाता था कि गर्भिणी पर अमंगलकारी या दुष्ट शक्तियों का कुप्रभाव पड़ सकता है । इस कुप्रभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से यह संस्कार सम्पन्न किया जाता रहा है । इस संस्कार का एक प्रयोजन माता के ऐश्वर्य एवं अनुत्पन्न शिशु के लिये दीर्घायुष्य की कामना था । गृह सूत्र में गर्भ के चौथे या पाँचवें मास में इन संस्कार के सम्पन्न करने का विधान किया गया है ।
4. जातकर्म - यह संस्कार बालक के जन्म के समय का है । नाभि छेदन के पूर्व जातकर्म संस्कार होता है । पिता अपने नवजात शिशु को छूता है , देखता है , सूंघता है और आशीर्वचन वाले मंत्रों का उच्चारण करता है ।
5. नामकरण - मनु ने लिखा है , दसवें अथवा बारहवें दिन में शुभ तिथि , नक्षत्र एवं मुहूर्त में बालक का नामकरण संस्कार किया जाना चाहिए । नाम राशि के आधार पर रखे जा सकते हैं ।
6. निष्क्रमण - इस संस्कार के द्वारा सबसे पहले जच्चा - बच्चा को घर से बाहर निकाला जाता है । इसमें माँ को सूर्य - दर्शन के बाद पूजन करना होता है ।
7. अन्न प्राशन - इस संस्कार के द्वारा बच्चा सर्वप्रथम अन्न ग्रहण करता है । यह छह मास की आयु में किया जाता है ।
8. चूड़ाकरण - इसे मुण्डन संस्कार भी कहते हैं । इस संस्कार को जन्म के प्रथम वर्ष अथवा तीसरे वर्ष में किया जाना चाहिए ।
9. विद्यारम्भ - मनु के अनुसार यह संस्कार पाँचवें अथवा सातवें वर्ष में होना चाहिए । इस संस्कार के बाद से ही बच्चे की शिक्षा का श्रीगणेश होता है ।
10. समावर्तन - यह संस्कार उस समय किया जाता है , जब ब्रह्मचारी विद्याध्ययन समाप्त करके घर लौटता है । इसे विद्या समापन संस्कार भी कहते हैं ।
11. उपनयन - मनु के अनुसार गर्भ के आठवें वर्ष ब्राह्मण , ग्यारहवें वर्ष क्षत्रिय बारहवें वर्ष वैश्य का उपनयन संस्कार होना चाहिए । उपनयन संस्कार के बाद व्यक्ति का सामाजिक या आध्यात्मिक तौर पर दूसरा जन्म होता है और उसे वेदारम्भ तथा धार्मिक कृत्यों को करने का अधिकार मिल जाता है ।
12. कर्ण - बेध - आभूषण पहनने के लिये विभिन्न अंगों के छेदन की प्रथा सम्पूर्ण संसार की असभ्य तथा अर्द्धसभ्य जातियों में प्रचलित है , किन्तु सभ्यता के उन्नत होने पर भी अलंकरण प्रचलित रहा यद्यपि यह परिष्कृत हो गया था । बृहस्पति , गर्ग एवं श्रीपति के अनुसार बालक के जन्म के एक वर्ष के अन्दर यह संस्कार सम्पन्न कर देना चाहिए ।
13. विवाह - हिन्दुओं के लिये विवाह एक संस्कार है और इसी संस्कार के द्वारा व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त होता है ।
14. वानप्रस्थ - यह व्यक्ति के वनों में जाकर ईश्वर के चिन्तन तथा उपासना करने से सम्बन्धित है , जिससे व्यक्ति वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश के योग्य बनता है ।
15. संन्यास - यह संस्कार आश्रम में प्रवेश के पहले किया जाता है । इस समय व्यक्ति पारिवारिक सम्बन्ध समाप्त कर पूर्णतः संन्यास ले लेता है तथा मोक्ष की कामना करता है ।
16. अन्त्येष्टि - यह व्यक्ति के जीवन का अन्तिम संस्कार है , जो कि उसके मरने के बाद पुत्र आदि द्वारा किया जाता है । इस संस्कार का उद्देश्य आत्मा की शांति के लिये कुछ कृत्य करना है ।
संस्कारो का उद्देश्य
1. प्रतीकात्मक उद्देश्य - संस्कारों का प्रथम उद्देश्य मनुष्य जीवन से सम्बन्धित कुछ संस्कारों का उद्देश्य विशिष्ट भावनाओं के उद्वेगों को अभिव्यक्त करना है । संस्कारों के माध्यम से हम उन उद्वेगों की अभिव्यक्ति कर सकते हैं . जैसे नामकरण संस्कार के द्वारा हम पुत्र जन्म के आनन्द की अभिव्यक्ति कर सकते हैं जबकि अन्त्येष्टि या अन्तिम संस्कार आत्म - परिजन के निधन पर उसके प्रति शोक व श्रद्धा का प्रतीक बन जाता है ।
2. आध्यात्मिक उद्देश्य - संस्कार का एक उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति है । संस्कार एक प्रकार से आध्यात्मिक शिक्षा के लिये क्रमिक सीढियों का कार्य करते हैं । 3. सामाजीकरण - संस्कारों का उद्देश्य व्यक्तियों का सामाजीकरण करना भी है । विवाह संस्कार के बाद ही व्यक्ति पति बन जाता है और गृहस्थ आश्रम से सम्बन्धित अपने कर्तव्य को करने योग्य माना जाता है । संस्कार व्यक्ति को एक विशिष्ट भाषा प्रदान करता है , जो सामाजिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है ।
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